शिवाम्बु चिकित्सा की प्राचीनता का क्या प्रमाण है ?
शिवाम्बु
चिकित्सा यह एक प्राचीन काल से चलती आ रही अनुभवसिद्ध उपचार पद्धती है। इस
चिकित्सा के प्राचीनता के प्रमाण अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं।
? ॠग्वेद में कहा
गया है -मतनुरेव तन्वो असतु भेषजमफ अर्थात शरीर ही शरीर की दवा है। शरीर अगर
अस्वस्थ होगा तो शरीर में स्थित प्राकृतिक औषधियों द्वारा ही उनका उपचार करना
चाहिए।
? आचार्य
भद्रबाहूकृत व्यवहार सूत्र में विशेष प्रकार की प्रतिज्ञा का स्वीकार करने वाले
जैनमुनियों के लिए स्वमूत्रपान का विधान है।
? भगवान बुद्ध ने
महागग्ग में सर्पदंश होने के बाद मूत्रप्रयोग का परामर्श दिया है। प्राचीन बौद्ध
ग्रंथ हेवराजा तंत्र में लिखा है कि,
जडीबुटी और स्वमूत्रपान से कभी भी वृद्धत्व आता नहीं और मृत्यु भी पीडा नहीं
देगा।
??ख्रिश्चन धर्म की
बायबल इस ग्रंथ में भी मऊीळपज्ञ ुरींशी र्ेीीं ेष ींहळपश ेुप लळीींशीप रपव
र्ीीपपळपस ुरींशी र्ेीीं ेष ींहळपश ेुप
ुशश्रश्रफ इस अभिप्राय की पंक्ती मिलती है। आयुर्वेद के प्राचीन एवं प्रमाणित
ग्रंथों में भी मानवमूत्रसंबंधी महत्त्वपूर्ण उल्लेख एवं संदर्भ मिलते हैं।
??सुश्रुत संहिता
कहती है, - मूत्र
मानूषंच विषापहम। - अर्थात नरमूत्र विष का नाश करनेवाला और प्राशन करने योग्य
रसायन है। यह खुजली का नाश करनेवाला,
तीक्ष्ण, क्षार एवं
लवणयुक्त है।
? वाग्भट ने
मअष्टांग संग्रहफ में लिखा है कि,
मानवमूत्र नेत्ररोगहर,
पित्तवृद्धि नाशक, तिक्त, कृमिहर, रेचक, पामहर एवं विषनाशक
है।
? हरित संहिता में
मानवमूत्र को क्षार, कटुक, मधुर, लघुपाकी, नेत्ररोगहर, वलय दीपक, कफनाशक कहा है।
? नरमूत्र रेचक, क्षारयुक्त, उष्ण रसायन है। वह
कडवा, रूक्ष, कृमिघ्न, दन्तदोषघ्न है।
चोट, भूतबाधा, चर्मरोग, वायू, मूर्च्छा और
पित्तदोष दूर करता है। मानवमूत्र विषघ्न है। उसका सेवन करने से वह रसायन का कार्य
करता है। रक्तदोष एवं चर्मरोग नाशक है। वह तीखा, क्षारयुक्त एवं नमकीन है। ऐसा निघंटू रत्नाकर, इस ग्रंथ में कहा
गया है।
? आध्यात्मिक उन्नती
के लिए योगशास्त्र में कुछ क्रियाओं के अभ्यास का उपदेश किया गया है। प्राचीन काल
में योगी और आध्यात्मिक साधक स्वयं का मूत्र प्राशन करते थें। योगशास्त्र का
प्रमुख आधार ग्रंथ महठयोगप्रदीपिकाफ में आमरोली क्रिया के संबंध विस्तार से कहा
गया है। मकापीलिकाफ इस योगपंथीयों के अनुसार स्वमूत्र की मध्य धार प्राशन करना
अर्थात आमरोली क्रिया है। विधिपूर्वक आमरोली सेवन से स्वास्थ्यरक्षण तथा व्याधी निर्मूलन
प्रक्रिया में और आध्यात्मिक प्रगती में गती निर्माण होती है। ज्ञानर्नवा तंत्र, डामरतंत्र इनके
अनुसार यह क्रिया बहुत ही अद्भुत और चमत्कारक गुण एवं लाभ प्रदान करनेवाली है।
शिवाम्बु
चिकित्सा का शास्त्रीय संदर्भ प्राचीन काल से प्रचलित मडामर तंत्र ग्रंथफ में
मिलता है। यह ग्रंथ याने माता पार्वती और भगवान शंकर इनके बीच हुआ संवाद है। इस
ग्रंथ में मशिवाम्बु कल्प विधीफ इस नाम से एक विशेष खंड है। जिसमें शिवाम्बु
चिकित्सा की विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है। शिवाम्बु पान किस पात्र से करना
चाहिए, शिवाम्बु
मालिश कैसा करें, शिवाम्बु के साथ
भिन्न-भिन्न वनस्पतियों का सेवन कैसे किया जाए, कौनसे ॠतु में कौनसी दिनचर्या एवं आहार रखा जाए, इस संदर्भ की
जानकारी डामर तंत्र इस ग्रंथ में 107 श्लोकों
द्वारा दी गई है।
प्राचीन
काल से हमारे भारतवर्ष में कई साधुसन्त,
ॠषिमुनी, योगी महात्मा
इस शिवाम्बु चिकित्सा का प्रयोग आध्यात्मिक साधना में करते आ रहे हैं।
सन्त कबीर
ने अपने दोहों में निम्न प्रकार से आमरोली की जानकारी दी है- अमरी अमरलोक से आई।
तीन लोग
में निर्भय भाई।
तन सोधे, मन राखे धीरे।
अमरी
उतारे, खरी नारी॥
कहे कबीर
कमरभाई काया।
जिन भेद
अमरी का पाया॥
अमरी, अमरी, अमरी कंद।
अमरी काटे
जम का फंद॥
उलटी आवे, उलटी आवे।
उलट-पुलट
के कालै खावे॥
काची अमरी
नासै रोग।
पाकी अमनी, साधे योग॥
कहे कबीर
अमरभाई काया।
जिन भेद
अमरी का पाया॥
संत कबीर
कहते है, शिबाम्बु
पान से देह शुद्धी तो होती है,
साथ ही मन का धैर्य एवं संयम भी बढता है।