जब भी संभव हो, खुलकर हंसे, यह एक सस्ती दवा है। बायरन मानते हैं की, प्रसन्नता ऐसा दर्शनशास्त्र है, जिसे ठीक से समझा नहीं गया, यह मानव-जीवन का उज्वल पक्ष है। हंसी तीन तैरह की होती है। पहले प्रकार की हंसी में हम किसी और के ऊपर हंसते है। ऐसे में, दूसरे पर किया गया कोई व्यंग, उसका अपमान या उपहास हंसी का विषय बनता है। यह सबसे निकृष्ट और घटीया हंसी होती है। गहराई से देखा जाए, तो इस हंसी में हिंसा और प्रतिरोध के भाव छिपे रहते हैं।
दूसरे प्रकार की हंसी वह होती है, जब हम स्वयं पर हंसते हैं। यह हंसी जीवन को निर्भय और तनाव मुक्त करने में समर्थ है। जब मनुष्य स्वयं पर हंसता है, तब वह उसके जीवन का मूल्यवान क्षण होता है। ऐसे क्षण में वह घृणा, ईर्ष्या, अहंकार, हिंसा और द्वेष से परे हो जाता है। कर्लाईल कहते हैं, जो अच्छी तरह दिल खोलकर एक बार भी हंस चुका है, वह कभी ऐसा दुराचारी नहीं हो सकता, जो कभी सुधर ही न सके। तीसरे प्रकार की हंसी अस्तीत्वगत है, जो जीवन की यथार्थ के साथ जुडी है। जब मनुष्य संसार की असारता और जीवन की क्षणभंगूरता को जानकर हंसता है, तो वह अस्तित्त्वगत हंसी कहलाती है। कोई प्रबुद्ध व्यक्ति ही ऐसी हंसी हंस सकता है। ऐसी हंसी प्रेरणा देने वाली सिद्ध होती है। स्वेट मार्डेन कहते हैं की, प्रकृति ने हमारे भीतरी अंगों के व्यायाम के लिए और हमें आनंद प्रदान करने के लिए हंसी बनाई है। कहा जाता है कि, पहले प्रकार की हंसी से बचो, दूसरे प्रकार की हंसी को जी भरकर हंसो, और तीसरे प्रकार की हंसी तक पहुंचने का प्रयत्न करो। विक्टर ह्युगो कहते है की, जो होठों और हृदय को खोल देती है तथा उसी समय आत्मा व दांतों के दर्शन कराती है। हंसी प्रकृती की सबसे बडी नियामत मानी जाती है, इसलिए हंसे, जग आपके साथ हंसेगा।