त्वचा के स्वास्थ्य का संबंध पर्यावरण, अनुवंशिकता से लेकर आहार विहार तक अवलंबित होता है। बदन पर फोडे-फुन्सियां, चट्टे, दाग पडना, खवले, खुजली, खपली, त्वचा निकलना, चिरा पडना, दाह होना आदि लक्षण दिखने पर त्वचा की ओर ध्यान दिया जाता है। बचपन से ही हर व्यक्ति में ‘मैं कैसा दिखता हूँ?’ इस संदर्भ में जिज्ञासा होती है। ‘मेरा वर्ण कैसा है?’ इस बारे में बच्चे भी सोचने लगते हैं। कई बार जाने-अनजाने व्यक्ति आप के शरीर की त्रुटि पर टिप्पणी करते है तब, मन में न्यूनगंड पैदा होता है। बाहय त्वचा, विकारग्रस्त होने से मानसिक तकलीफ होती है। ऐसे दो त्वचा विकार प्रमुख होते हैं। ये है ‘सोरियासिस एवं सफेद दाग।’
सोरियासिस यह एक मनोकायिक विकार है, जिसमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष मानसिक भावना, संवेदना का असर बीमारी पर भी होता है| कई बार लोग कहते है कि, मुझे किसी प्रकार की मानसिक बीमारी नही हैं अथवा मैं पूरी तरह पथ्यपालन करता हूँ। फिर भी मुझे बिमारी क्यो हैं? इसका उत्तर यह है कि, हर व्यक्ति की शारीरिक रचना एवं बाहय माहौल से संतुलन रखने की क्षमता भिन्न होती हैं। लेकिन यह भी सच है कि, यह दोनो बीमारी भयानक है, लेकिन ऐसा सोचकर दुखी न हों - इसे शरीर में उत्पन्न हुई एक विकृती समझकर और मानसिक रूप से सशक्त रहकर इसका सही इलाज करना चाहिए।
सोरियासिस में त्वचा मोटी, काली एवं खरखरित होती है। खपली, रूसी निकलना, छोटे बडे दाग निकलना, पूरा बदन खुजलाना, दाह होना, कभी नाखून, कभी हाथ-पैर का तलवा खराब होना, उसमें चिरा पडना, कभी-कभी जोडों का दर्द होना, सूजन आदि तकलीफ होती है। सफेद दाग की समस्या में भी घोटा, कुहनी, आंखो की पलकें ओठ, गुदा, घुटना, पेट, पीठ, आदि पर फिंकें, सफेद दाग निकलते हैं, जो कई सालों तक, कभी कभी जीवन भर बने रहते हैं और बढते हैं। दोनों विकृतियों में त्वचा की विकृति के कारण वैफल्य की, भावना पैदा होना, सामान्य बात है। सोरियासिस, सफेद दाग, एक्जिमा, नागिन आदि कई विकारों में शरीर का बिगाड त्वचा पर दिखायी देता है। इसलिए ऊपर से लगानेवाली तथा पेट में लेने की दवाईयां लाभदायक होती है। इसका शरीर पर विपरीत परिणाम न हो इसलिए मरीज को आशादायी इलाज करवाना चाहिए। ऐसा इलाज एवं मरिज की सभी समस्याओं का एकत्रित निराकरण करनेवाला ‘आयुर्वेद’ यह एक प्राचीन शास्त्र है।