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Chemical Pills can not Heal You..! - केमिकल युक्त दवाइयाँ कभी रोगमुक्त नहीं कर सकती..!


रोग में प्रकट हुए लक्षणको लोग स्वतः रोग मान बैठते है। इसके फलस्वरूप उपचारका यह अर्थ लिया जाता है कि,‘जब वे लक्षण न रह जाये, तो स्वीकार कर लेना चाहिए कि आदमी स्वस्थ हो गया।’ इस पद्धति में कष्ट अथवा अस्वास्थ्य के कारण को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया जाता। दवा दी गयी, लक्षण समाप्त हुए। और इसे ही दवाका सिद्धान्त माननेवाले ‘इलाज’ कहते हैं।

    मुझे इस बात पर बड़ा आश्‍चर्य होता है कि, किसी समझदार पुरूष या नारी को यह कैसे विश्‍वास होता है कि, दवा खाकर आजका तथाकथित सभ्य आदमी सही अर्थोमें पूर्ण स्वास्थ्य का स्वामी बन सकता है। और, वह कैसे यह स्वीकार कर सकता है कि,रोगों से पूर्ण मुक्ति पाने की दिशामें उसे मात्र एक काम यह करना है कि ‘वह दवा खाये।’ इसमें संदेह नहीं र्किें हर आदमी पूर्ण रूपेण स्वस्थ रहने की इच्छा रखता है,पर इस दिशामें बस वह यही माने बैठा है कि, कोई ‘गोली’ अथवा ‘दवा’ ही उसके लिए एक मात्र सहायक है।

    दवा, खाने या खिलानेका यह सिद्धान्त रोग को प्रकृति के सम्बन्ध में एक गलत धारणा का दुष्परिणाम है। क्योंकि, रोग में प्रकट हुए लक्षणको लोग स्वतः रोग मान बैठते है। इसके फलस्वरूप उपचार का यह अर्थ लिया जाता है कि, जब वे लक्षण न रह जायें, तो स्वीकार कर लेना चाहिए कि, आदमी स्वस्थ हो गया। इस पद्धति में कष्ट अथवा अस्वास्थ्य के कारण को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया जाता। दवा दी गयी, लक्षण समाप्त हुए। और, इसे ही दवाका सिद्धान्त माननेवाला ‘इलाज’ कहते हैं।

    हम बराबर इस तथ्यकी ओर ध्यान आकृष्ट करते रहे हैं कि,लक्षण मात्र इस बात के द्योतक हैं कि, व्यक्ति रूग्ण है। और,इन लक्षणों को दवा देनेका कोई सम्बन्ध रोग-निवारण अथवा उसके इलाजसे नहीं है।

    इस तर्क को स्पष्ट करने के लिए ‘सिरदर्द’ को लें। इससे लोग अक्सर ग्रस्त हुआ करते हैं, सिरदर्द मात्र एक रोग लक्षण है। वह यह द्योतित करता है कि, शरीर में कहीं कोई गड़बड़ी है-उच्च रक्तचापसे भी सिरदर्द हो सकता है और कब्ज अथवा ‘साइनाइटिस’ से भी और कब्ज अथवा अजीर्ण से भी। पर, जब दर्द निवारण के लिए व्यक्ति ऐस्पिरिन ले लेता है, तो नाड़ी दर्द की अनुभूति समाप्त हो जाती है। पर ‘एस्पिरीन’ उस असामान्य अवस्थाके निवारण के विषय में कुछ नहीं करती, जिसके फलस्वरूप शरीर में विषाक्त अवस्था उत्पन्न होने के पीछे भी अनेक कारण हो सकते हैं-यथा, गलत आहार, आंत, गुर्दे, त्वचा, फेफड़े आदि मलनिष्कासक अंगोंकि निष्क्रियता आदि।

    परम्परागत रूप में दवा देकर रोगमुक्ति का कार्य करने वाले चिकित्सक कह सकते हैं कि, दवा मात्र लक्षणको समाप्त नहीं करती, शरीर को रोग से छुटकारा पाने में सहायता भी करती है। इस प्रकार की स्थापनासे प्रश्‍न उपस्थित होता है कि ‘दवा काम कर कैसे सकती है? स्वास्थ्य के लिए अपेक्षित किसी शर्त की आपूर्ति करनेकी क्षमता क्या दवा में है, जिससे स्वास्थ्य-लाभ करनेका समय कम हो?’ इन प्रश्‍नोंका उत्तर स्पष्ट ‘नहीं’ है। तथ्य तो यह है कि दवा स्वतः विषाक्त होती है। इसके फलस्वरूप वह शरीर के कचडे को कम करने के बजाय, कचडे को बढाने में ही सहायक हो सकती है। ऊपर कहा ही जा चुका है कि शरीर में इस प्रकार कचड़ेका एकत्र होना ही रोग का कारण है।

    यदि कोई व्यक्ति चिकित्सा-व्यवसाय से सबन्धित शोध-पत्रिकाओं को नियमित रूप से पढता रहे, तो वह इस बात से आश्‍वस्त हो जायेगा कि, जिस प्रकारके रोगके उपचारके लिए ये दवाएँ दी जाती हैं, उनकी तुलना में नये रोग पैदा करनेके लिए कहीं अधिक वे कारण-रूप होती है। परम्परागत दवाओं के खतरे का एक बड़ा साक्षी यह है कि, हर दवा जो डाक्टर के दवाखाने में या अस्पतालों में पहुँचाती है, उसके साथ मात्र ‘चिकित्सक के लिए’ कहकर एक निर्देशपत्र भी रहता है, जिसमें विस्तारसे यह लिखा होता है कि, दवा के उत्तर-परिणाम क्या है अथवा वह दवा कितनी ‘टॉक्सिक’ है।

    ‘चिकित्सक के लिए’ कहकर एक निर्देशपत्र भी रहता है, जिसमें विस्तारसे यह लिखा होता है कि, दवा के उत्तर-परिणाम क्या है अथवा वह दवा कितनी ‘टॉक्सिक’ है।

    इस रूपमें हमारे सामने यह बात स्पष्ट रूपमें प्रकट हो जाती है कि, दवा देकर इलाज करने की प्रक्रिया का कोई संबंध रोग के कारणों को दूर करनेसे नहीं है। विषसे युक्त शरीर में दवा तो विष की अभिवृद्धि ही करती है। इस बढे विष को निकालने का यदि प्रयास करना पड़ा, तो उससे शरीर का शक्ति स्रोत और कमजोर ही होगा। फिर, इसके फलस्वरूप व्यक्ति जीर्ण रोगों से ग्रस्त होगा।