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Sound Pollution - Challenge for our Health - ध्वनी प्रदूषण : बढती लागत घटता जीवन

    यशस्वी अमरीकी पत्रकार लीजा लिंग का कहना है कि, हम ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ ज्यादा से ज्यादा शोर की बीमारी से हम असुरक्षित महसूस करते हैं। आज संयुक्त राज्य अमरीका में 10 करोड़ से अधिक लोग शोर के दुष्प्रभावों से ग्रसित हैं, जिनमें 50 प्रतिशत बहरेपन के स्थायी शिकार हैं। लेकिन शोर के मामले में आज दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित नगर रियो-डी-जानरियो (ब्राजील) है जहां सड़क पर चलने वाले हर व्यक्ति को 120 डैसीबल से अधिक शोर स्तर का मुकाबला करना पड़ता है। यह शोर स्तर व्यक्ति को मनः शारीरिक रूप से रूग्ण बना देने के लिए पर्याप्त है। शोर प्रदूषण के मामले में दिल्ली, रियो-डी-जानरियो या वांग्चू (चीन) से बहुत दूर नही है। विश्‍व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शोर की सहन सीमा 50 डैसीबल है। 120 डैसीबल शोर स्तर कुछ ही मिनटों में तथा 150 डैसीबल शोर स्तर कुछ ही सैकण्डों में अस्थायी बहरापन ला सकता है। यदि यह स्तर कुछ समय तक बना रहे तो स्नायुविक व हृदय रोग भी हो सकते हैं। दिल्ली में सर्वाधिक शोर सफदरगंज हवाई अड्डा, पुरानी दिल्ली स्टेशन, शाहदरा, राजा गार्डन चौक व आजाद मार्केट में पाया गया जहां शोर का स्तर 90 से 120 डैसीबल था।

जब हम प्रदूषण की बात करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में कोहरे या धूंए से भरे शहर की छवि या समुद्र में उलीचे तेल या प्लास्टिक का दृश्य या घातक रसायन से आवृत्त भूमिगत जल की ओर चला जाता है। हम अभी तक शोर को प्रदूषण के रूप में स्वीकार नहीं करते, भले ही उनके खतरों को झेलते रहते है। धीरे-धीरे अत्यावश्यक शोर स्तर के खतरे प्रकाश में आ रहे हैं। घर के अन्दर और बाहर का शोर हमारी जीवी का क्षय कर रहा है। धीरे-धीरे शोर छोटे-बड़े शहरों को अपनी कुण्डली में जकड़े जा रहा है। शोर प्रदूषण को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - 1. सामुदायिक शोर, 2. औद्योगिक शोर। सामुदायिक शोर को हम घरेलु शोर भी कह सकते है। घर के अन्दर का शोर जैसे ऑडियो उपकरण, टेलीविजन, वॉशिंग मशीन, डिशवॉशर्स तथा अन्य सुविधा उपकरणों का। औद्योगिक शोर- बॉईलर मशीन, फाउंण्ड्री, कटिंग मशीन, ऑफिस में दनदनाते स्कूटर्स, एअरकन्डीशनर्स, टेलीफोन पर बात करते लोगों व रगड़ते फर्नीचर का, होटल में शोर, चीखते डैक और झन झनाते कप-प्लेटों का। सड़क पर शोर, चीखते बस हॉर्न तथा लाउड स्पीकरों का व कारखानों का शोर, चिंघाड़ती मशिनों तथा भौंपू का, धीरे-धीरे हमारी जीवन की गुणवत्ता का क्षय करता जा रहा है। बिस्तर तक शोर हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र में ‘गणपति’, गुजरात में ‘नवरात्रि’ और उत्तर भारत में ‘जागरण’, बिना लाउड स्पीकर के पूरा ही नहीं माना जाता। मस्जिदों में भी ‘नमाज’ या ‘राम-कथा’ में लाउड स्पीकर एक अनिवार्यता बन गई है। बेशक लाउड स्पीकर और रिकार्ड प्लेयर के आविष्कार से पहले भी हम धार्मिक थे? जब किसी कारण बिजली चली जाती है तो लाउडस्पीकर तथा जैनरेटर्स का मिश्रित शोर और दीपावली पर शोर करती आतिशबाजी के समय पूरे भारत के वृद्धजन व हृदय रोगी सड़कों पर दिखाई नहीं देते। विस्फोटक आतिशबाजी का भरपूर मजा लेने के लिए उसे एम्प्लीफायर के पास रखकर चलाते हैं ताकि उसके शोर की तीव्रता कई गुना बढ जाये। यह कोई आश्‍चर्य नहीं कि दिल्ली स्थित ऐम्स, मूलचन्द हॉस्पिटल, जयप्रकाश नारायण हॉस्पिटल आदि भी शोर की गिरफत में जकड़े हुये है जो मानते हैं कि, प्रदूषित हवा और पानी के बाद अब शोर एक नई बीमारी के रूप में हमारे दरवाजों पर दस्तक दे रहा है।

अलग-अलग शोर स्तर व अलग-अलग परिणाम

शोर हमारे जीवन को तीन स्तरों पर प्रभावित करता है।

1. श्रवण स्तर- जब यह हमारे श्रवरू प्रक्रिया के कार्य निष्पादन में रूकावट डालता है।

2. जैविक स्तर- जब यह हमारे दैनिक कार्यो में विघ्न डालकर शरीर को अनेक

रोगों के रूप में प्रभावित करता है।

3. आचरण संबंधी स्तर- जब यह समाज के प्रति हमारे व्यवहार को प्रभावित कर हमें हिंसक तथा चिड़चिड़ा बनाता है। अतः शोर न केवल श्रवण संबंधी रूकावटे प्रस्तुत करता है वरन अनेक शारीरिक व मानसिक व्याधियों के लिये भी उत्तरदायी है। यहां तक कि हमारा आचरण तथा समाज के प्रति हमारा व्यवहार भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। शोर के कारण स्नायुविक विकार आम होते जा रहे है। जे. एन. यू., दिल्ली के एक सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली में शोर स्तर में वृद्धि के साथ स्नायुविक रोग, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग भी बढ रहे हैं। पुणे के कुछ डाक्टरों द्वारा किये गये अध्ययन से पता चला है कि, महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम के लगभग 90 प्रतिशत बस चालक शोरजन्य बहरेपन से पीडित थे। मुम्बई में मानसिक रोगों का बढता हुआ अनुपात भी शोर का दुष्परिणाम माना जाता है। प्रख्यात अमरीकी मनौवैज्ञानिक डॉ. हयूम के अनुसार, दीर्घकाल तक बने रहनेवाला शोर मानसिक रोगों के अलावा कई मामलों में हिंसा को भी जन्म दे सकता है।‘

नियंत्रण आवश्यक है

शोर प्रदूषण की समस्या मूलतः इसके दुष्प्रभावों को लेकर है जो हमारे बजट के साथ-साथ हमारे जीवन की गुणवत्ता क्षय भी करते हैं। भारत में शोर प्रदूषण की लागत का सांख्यिकी अध्ययन नहीं हुआ। लेकिन इंग्लैंण्ड के आंकडे बताते है कि वहां अकेले शहरी पनिवहन द्वारा जनहित शोर की लागत 7 से 10 अरब पाउण्ड प्रतिवर्ष है। वहां उसे सुख परावर्तन (Happiness regression) कहा जाता है। पर्यावरण विशेषज्ञ डेनिस पारकर का कहना है,’भारत के पास प्रकृति के अनुरूप पर्यावरण नियोजन का सुनहरा अवसर है, जिसे उसे खोना नहीं चाहिये।’ दुर्भाग्य इस बात का है कि ‘शोर’ के बारे में अभी तक न तो आम व्यक्ति और न सरकार भी अपेक्षित रूप से चिंतित है। शोर पर प्रभावशाली ढंग से काबू पाने के लिये दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन दोनों ही उपाय करने होंगे। दीर्घकालीन उपायों के अंतर्गत रूस की भांति भारत में भी शहरीकरण पर रोक लगाने की आवश्यकता है। वन संरक्षण और संवर्धन को एक नीति के रूप से स्वीकार किया जाना चाहिये। सड़कों के किनारे अधिक से अधिक पेड़ लगवाये जाने चाहिये। पर्यावरण विशेषज्ञों का मत है कि पेड़, शोर की भयावहता को कम करने की क्षमता रखते हैं। अल्पकालीन उपायों के अन्तर्गत मशीनों में ध्वनि अवरोधकों का प्रयोग, औद्योगिक श्रमिकों द्वारा कानों में प्लग पहनना, मोटर वाहनों के हार्न का सीमित प्रयोग,आदि कदम हो सकते है। महानगरों में शोर के स्तर में कमी लाने के लिये विभिन्न स्तरों पर व्यूह रचना तैयार करनी होगी। उदाहरण के लिए हॉस्पिटलों के आसपास निस्तब्ध खण्डों का निर्धारण तथा हवाई अड्डों पर हवाई जहाजों के उतरने तथा उड़ने के लिए समय सीमा का निर्धारण। इसी तरह महानगरों में अधिक से अधिक फ्लाईओवर तथा उप मार्गों का निर्माण शोर को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं। व्यक्तिगत स्तरों पर लाउड स्पीकरों, स्टीरियों व मोटर हार्न का कम से कम प्रयोग के साथ-साथ, दीपावली पर आतिषबाजी के प्रयोग पर भी अंकुश लगाने की आवश्यकता है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अन्तर्गत काफी सीमा तक शोर को नियंत्रित करने के लिए कानूनी व्यवस्था की गई है। वर्ष 2000 में शोर नियमन नियमों की रचना कर विभिन्न क्षेत्रों में शोर की अधिकतम सहन सीमा का निर्धारण भी किया है। जैसे उद्योगों में अधिकतम सीमा 75 डैसीबल, व्यवसाय में 65 डैसीबल, रिहायशी क्षेत्रों में 55 डैसीबल। स्कूल, न्यायालय, हॉस्पिटल के सौ मीटर इलाके निरव क्षेत्र घोषित किया गया है। लेकिन देखने में आया है कि,इन नियमों,प्रतिबंधों का अक्सर उचित पालन नहीं होता है। पर्यावरण मंत्रालय को इस दिशा में कुछ करना ही होगा। यह व्यवसाय व उद्योग का भी उत्तरदायित्व है कि विकास की सामाजिक लागतों का ध्यान रखते हुए वे शोर नियंत्रण के लिए हर संभव प्रयास करें। वर्तमान परिस्थितियों में सरकार,व्यवसाय व उद्योग तथा हर आम व्यक्ति के सहयोग से शोर पर काबू पाया जा सकता है। हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि शोर कोई खेल तमाशा नहीं है बल्कि यह स्वास्थ्य का विषय है।