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Self-Realization: Remedy for Fears - आत्मबोध द्वारा : भय से मुक्ति ही उपचार है !

पॉल टेलर कहते है कि, भय से मुक्त होना ही उपचार है अर्थात् “Healing is letting go of fear” भय क्या है तथा शरीर में भय का स्थान क्या है? भय वस्तुतः एक कल्पना मात्र है जो हमारे मन की उपज है। यह एक नकारात्मक विचार मात्र है। मन से भय का चिंतन समाप्त हो जाना, नकारात्मक विचारों से मुक्त हो जाना ही उपचार है। व्याधि विशेष के प्रति हमारे मन में समाया हुआ डर ही उस रोग को आमंत्रित करता है। कभी न कभी, किसी न किसी रूप में हमारे मन में उस रोग की चिंता या भय के बीज चले जाते हैं जो निरंतर पल्लवित-पुष्पित होते जाते हैं और अन्ततः हमें बीमार कर देते हैं। यदि हम उन बीजों को मन में जमने न दें अथवा उग आने पर उन्हें जड से उखाड फेंके तो उस व्याधि से हम सदैव के लिए मुक्त हो गए समझो। रोग मन की पैदावार है, तंदुरूस्ती भी मन की फसल है। मन एक इन्स्ट्रुमेन्ट है- सही तरीके से इसका इस्तमाल किया तो वरदान है, और नासमझी और बेहोशी से उसका इस्तमाल किया तो वह अभिशाप बन जाता है।

रोग हो या स्वास्थ, चिंता हो या प्रसन्नता दोनों का कारण मन है। मन द्वारा ही रोग अथवा चिंता की समाप्ति संभव है, तथा मन द्वारा ही अच्छे स्वास्थ्य अथवा प्रसन्नता की प्राप्ति संभव है। लेकिन मन का नियंता कौन है? आप स्वयं अपने मन के नियंता है। पहले अपने मन पर नियंत्रण किजिए। मन के चिंतन को सही दिशा में ले जाइये। अच्छे स्वास्थ्य का चिंतन किजिए। स्वयं को स्वस्थ-सुंदर तथा अनेकानेक सकारात्मक गुणों से भरपूर देखिए। मन में रोग के भय के चिंतन से मुक्त हो जाइए। जब तक भय से मुक्त नहीं होंगे तब तक बात नहीं बनेगी। रोग के भय से मुक्त होना ही रोग मुक्त होना है।

आरोग्य के लिए रोग के भय से मुक्ति, समृद्धि के लिए अभाव के भय से मुक्ति, जीवन को सम्पूर्णता से जीने के लिए मृत्यु भय से मुक्ति, ज्ञान के लिए अज्ञानता के भय से मुक्ति, प्रकाश के लिए अंधकार के भय से मुक्ति, प्रेम के लिए घृणा के भय से मुक्ति, विजय के लिए पराजय के भय से मुक्ति, पुर्णता के लिए अपूर्णता के भय से मुक्ति, विश्वास के लिए अविश्वास के भय से मुक्ति, सत्य के लिए असत्य के भय से मुक्ति जरूरी है। भय से मुक्ति, मन के नियंत्रण तथा उचित दिशा निर्देश द्वारा ही संभव है। नेपोलियन ने कहा है, ‘जिसे पराजित होने का भय है, उसकी हार निश्‍चित है।’

आपके मन की स्थिती के कारण ही न जाने कितने रज्जुरूपी महासर्प फुँकार रहे हैं, आपको भयभीत कर रहे हैं, आपका मार्ग अवरूद्ध कर रहे हैं, आपको पीछे हटने पर विवश कर रहे हैं। आपकी चेतना का हरण कर, और जड बना रहे हैं। आदि शंकराचार्य कहते हैं -

रज्जुसर्पवदात्मानं जीवोज्ञात्वा भयंवहेत।

नाहं जीव परात्मेति ज्ञातश्‍चेन्निर्भयो भवेत्॥

अर्थात् जब जीव भ्रमवश रस्सी को समझता है साँप, तब प्रतीत होता है उसको भय। परंतु जब उसे बोध हो की, मैं जीव नहीं, परमात्मा हूँ, तब हो जाता है वह निर्भय।

जोसफ मर्फी अपनी पुस्तक, ‘पॉवर ऑफ युवर सबकॉन्सीयस माइंड’ में एक घटना का वर्णन इस प्रकार करते हैं-

एक कैंसर के रोगी को जब ये बताया गया कि उसकी रिपोर्ट तो किसी और कैंसर के रोगी व्यक्ति की है, जो गलती से तुम्हारी मान ली गई है तथा वह भला-चंगा है, तो वह व्यक्ति जो मृतप्रायः बिस्तर पर पडा था उठकर खडा हो गया और क्योंकि उसके मन ने मान लिया कि वह कैंसर का रोगी है ही नहीं तो कुछ ही दिनों में सामान्य उपचार और देख-भाल के बाद वह व्यक्ति निरोगी होकर एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन व्यतीत करने लगा।

इस प्रकार सकारात्मक विश्वास द्वारा दृढतापूर्वक मन को प्रभावित कर किसी व्याधी या किसी समस्या का उपचार करना ही मन की श्रेणी में आता है। मन की इसी शक्ति को उर्दु शायर, बहजाद लखनवी ने अपने एक शेर में इस प्रकार व्यक्त किया है :

ऐ जज्बा-ए-दिल गर तू चाहे हर चीज मुकाबिल आ जाए,

मंजिल के लिए दो गाम चलुँ और सामने मंजिल आ जाए।

कहा गया है कि, एक डॉक्टर जख्म की मरहम-पट्टी करता है, लेकिन ईश्वर उसे ठिक करता है। Doctor dresses a wound, God heals it. क्या हमारा मन ही कुदरत का हिस्सा नहीं हैं, जो उपचार करती है, आराम पहुँचाती है? क्या हमारे मन की सदिच्छा ही ईश्वरच्छा नहीं बन सकती है। ईश्वर क्या हमसे दूर,हमसे भिन्न है?

बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है: अहम ब्रह्मास्मि, मैं, ईश्वर हूँ, I am, is God, the Omnipotent. शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन भी कहता है: ‘ब्रम्ह सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः’ ब्रह्म सत्य है जगत असत्य तथा जीवन ब्रह्म से भिन्न नहीं है।

सूफी मत में भी यही कहा गया है, ‘अनलहक’, अर्थात् I am the truth, the god. सूफी मत का आधारभूत दर्शन, इब्नुल अरबी का वहदतुल वुजूद अथवा तौहीद या एकेश्‍वरवाद है। यह अद्वैत का ही फारसी अथवा सूफी संस्करण है।

ईश्वर का एक गुण है कि वह, बीमार नहीं होता। जब हम ईश्वर के ही अंश मात्र हैं तो हमारे बीमार होने का प्रश्‍न ही नहीं उठता,लेकिन जरूरी है, अपने ईश्वरतत्व को साकार करना, अपने अंदर के ईश्वरीय गुणों को पहचान कर उन्हें स्थापित करना,जो मन द्वारा ही संभव है। मन द्वारा अपने अंदर ईश्‍वरीय गुणों को स्थापित कर लेंगे तो अवश्य ही हम स्थायी रूपसे निरोगी हो सकेंगे। स्वास्थ्य हमारा स्थाई स्वभाव है।

ईश्वरीय गुण उत्पन्न करने का अर्थ है, स्वयं को जानना, भ्रम की स्थिती की समाप्ति। आत्मबोध अर्थात् Self Realization स्वयं को जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। स्वयं को जानना ही ईश्वर को जानना है। अपने शरीर, मन और आत्मा अथवा शरीर, मन और चेतना से जुडना, यही ईश्वरीय गुणों को स्थापित करना है। यही आध्यात्मिक उन्नती है, जो सब रोगों का निदान है।

आध्यात्म या आध्या-त्मिक उपचार कोई जादू नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाला अनुदान-वरदान। देवी-देवताओं का भी यह स्वभाव नहीं है कि, चापलूसी करनेवालों को निहाल करते रहें और जो इनकी ओर ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनाएं। वस्तुतः देवत्व आत्म जागरण की एक स्थिती विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लिया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है। अपने आपको जानने से और अपने सच्चे और अच्छे गुणों को पहचन कर उनका अनुभव करने से ही इन्सान संपूर्ण निर्भयता की अवस्था को प्राप्त हो सकता है।

इन्सान सदा अपने अन्दर कुछ न कुछ कमी महसूस करता है, अपूर्णता महसुस करता है। इसलिए डरता है। अपने आप को मर्यादित शरीर ही मानता है, मैं शरीर और शरीर से सबंधीत चिजों और रिश्तों के ममत्व में अटकता है, इसलिए मन में असुरक्षा और भय पैदा होता है।

शरीर से, ममत्व और चिपकाव होने से ही अहंकार का निर्माण होता है, जो सब डरों की जड है। आईए, नए साल में, हम खुद पहले शरीर के मोह-माया से मुक्त हो जाएं, और संपुर्ण निर्भयता को महसुस कर, संपुर्ण स्वस्थ बने। सभी को नये वर्ष की स्वास्थ्यवर्धक, ज्ञानवर्धक शुभकामनाएं!