शरीर में शिवाम्बु कैसे तैयार होता है ?
जब हम कुछ
भोजन करते है, तब वह
हमारी अन्ननलिका से पेट में जाता है। वहाँ उस भोजन में बहुतसारे पाचकरस मिलकर उस
भोजन का विघटन करते हैं। फिर वह अन्न छोटी आंतों में जाता है। वहाँ अन्न से पोषक
तत्त्वों का शोषण किया जाता है और बाकी बचा हुआ भाग बडे आंतों में जाता है। वहाँ
जलरूपी घटक शोषित किए जाते हैं और आगे बचा हुआ हिस्सा मलाशय और गुद्द्वार के
माध्यम से बाहर उत्सर्जित किया जाता है। जिसे हम ममलफ कहते है। परन्तु मूत्र
तय्यार होने की प्रक्रिया कुछ भिन्न है।
स्वमूत्र
यह हमारे मूत्रपिन्डो में रक्त से बनता है। हमने खाए हुए अन्न में से महत्त्वपूर्ण
पोषक घटक आंतों से रक्त में शोषित किए जाते है। यह पोषक तत्त्वों से संपन्न रक्त
संपूर्ण शरीर की पेशियों तक,
हृदयद्वारा पहुँचाया जाता है। प्रत्येक मिनट में हमारे शरीर से 20 से 25 प्रतिशत रक्त
हमारे मूत्राशय में आता है। हमारे पेट में दो मूत्रापिन्ड होते हैं।
मूत्रापिन्डोंमें, नेफ्रॉन
नाम की अल्ट्रा फिल्टरेशन करनेवाली लाखों पेशीयाँ होती है। जहाँ मूत्र की निर्मिती
होती है और वह धीरे-धीरे मूत्राशय में आकर जमा होता है।
संक्षेप
में मूत्र हमारे ही खून से तैयार होता है,
इस कारण उसमें कुछ भी विषैले,
विजातीय अथवा नुकसानकारक घटक नहीं होते हैं।
हमारे
मूत्रापिन्ड, उत्सर्जन
का नहीं तो सन्तुलन का कार्य करते हैं। हमारे शरीर में कुछ घटकों को जमा करके रखा
जा सकता है और कुछ घटकों को जमा करके नहीं रखा जा सकता। जैसे हमारे शरीर में पानी, क्षार, जीवनसत्त्व, हार्मोन्स, एन्झाईम्स ई.
तत्त्वों को जमा करके रखने की सुविधा नहीं है। उत्तम आरोग्य के लिए रक्त के सभी
घटक एक विशिष्ट सन्तुलन की स्थिती में (होमिओस्टॅटिक स्टेट) होना आवश्यक है। इसलिए
मूत्रापिन्ड, रक्त में
जो घटक जादा मात्रा में है और जिनको जमा करके नहीं रखा जा सकता, उन घटकों को
मूत्रद्वारा बाहर निकालते है।
हमारे
मूत्रापिन्ड खून के जैवरासायनिक घटकों का सन्तुलन रखने का काम करते हैं। जिस क्षण
खून में वह घटक जादा मात्रा में आ जाते हैं,
उसी क्षण हमारे मूत्रपिन्ड उन घटकों को मूत्रद्वारा बाहर निकालते है। इसका
अर्थ यह हुआ कि, यह घटक
त्याज्य अथवा अपायकारक नहीं है। वे घटक उसी क्षण उस स्थिती में शरीर में जादा
मात्रा में थे, इसलिए
मूत्रद्वारा उन्हें बाहर निकाला जाता है। अगर यह मूत्र हमने फिर से अपने शरीर में
लिया तो वह हमारी पाचनसंस्था में जाता है और उससे उपयोगी घटक फिर से शरीर में समाए
जाते हैं। इसे हम प्रेशर कुकर के उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं। कुकर की सिटी बजने
के बाद थोडी बाफ बाहर निकलती है। यह बाहर निकलनेवाली बाफ बेकार है अथवा निरुपयोगी
(वेस्ट) है, इसलिए
बाहर निकलती है क्या ? वह एक
ऊर्जा है, वह उस
क्षण के लिए अन्दर जादा हो गई,
इसलिए बाहर निकलती है। जिस प्रकार प्रेशर कुकर की बाफ सिटी बजते ही बाहर आती
है, क्योंकि उस क्षण
अन्दर उसकी जरुरत नहीं होने के कारण जादा होने से वो बाहर आती है। उसी प्रकार खून
में पोषक घटकों का प्रमाण जादा होने पर मूत्ररूप में बाहर निकाले जाते हैं। स्वमूत्र
में ऐसा कुछ नहीं होता, जो वेस्ट
होता है। हम सब अनुभव के द्वारा यह जानते हैं कि, हम जादा पानी पिते हैं, तब मूत्र विसर्जन भी जादा होता है और कम पानी पीने से मूत्र
विसर्जन कम होता है।
जब हम सभी
हमारी माता के गर्भ से जन्म लेते हैं,
तब इसी प्राकृतिक मूत्र के रिसायकल का अनुभव लेते हैं। साधारणत: नौ महिनों तक
माता के गर्भ में हम अॅमनिऑटिक फ्लुईड (गर्भजल) के रूप में स्वमूत्र प्राशन करते
आ रहे हैं। हमारे शरीर की निर्मिती में इस द्रव का बहुत बडा सहयोग है। इसलिए हम
सभी को जन्म से पूर्व स्वमूत्रपान का अनुभव है। स्वमूत्रपान हमारे लिए नया नहीं है,
बल्की हमारे अस्तित्व की वह नींव
(फौंडेशन) है।
इससे यह
सिद्ध होता है कि, मूत्र यह
एक शुद्ध, निर्जंतुक, हमारे खून का ही
एक भाग होकर, खून का ही
परिवर्तित प्रतिबिंब है। मूत्र एक ऐसा द्रव है, जो हमारे शरीर ने हमारे लिए बनाया हुआ जीवनदायी द्रव है। आप
कितना भी पैसा खर्च करके भी,
विश्व के किसी भी कारखाने में ऐसा द्रव बनाना संभव नहीं है।